Wednesday, May 20, 2009

ये आंसू मेरे दिल की जुबान हैं...


प्रधानमंत्री न बन पाने पर लालकृष्ण आडवाणी आखिर क्यों रोए? यह सवाल लोगों के जेहन में है। यह तस्वीर भाजपा के `लौह पुरुष# की अंतरआत्मा को उजागर करती है, जो अब तक देश के शांत और गंभीर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को कमजोर करार दे रहे थे।

क्या आपने किसी प्रधानमंत्री को रोते देखा है? वीपी सिंह जब प्रधानमंत्री थे और आरक्षण की आग में सैकड़ों छात्रों ने आत्मदाह किया, तो उस समय देश को संबोधित करते समय उनकी भी आंखें भर आईं थी। इंदिरा गांधी को कभी किसी ने रोते नहीं देखा। वे अपने बेटे संजय की मौत के समय रोई थीं। लेकिन आडवाणी तो प्रधानमंत्री न बन पाने पर ही रो दिए। आखिर आडवाणी क्यों रोए?

चुनाव के परिणामों में कांग्रेस ने सुबह ही रण जीत लिया था। शाम होते-होते तो पूरी स्थिति ही साफ हो गई। आडवाणी शांत भवन में चले गए। उन्होंने ऐलान कर दिया कि यदि मैं प्रधानमंत्री नहीं बन सका तो विपक्ष का नेता भी नहीं रहूंगा और न ही राजनीति करुंगा। आडवाणी की यह बात सुनकर भाजपा और संघ के दिग्गज मातमपुर्सी करने पहुंच गए। आडवाणी का रोना उन दिनों की याद दिलाता है जब विश्व कप में सट्टेबाजी के आरोपों के बाद कपिल देव बीबीसी के एक इंटरव्यू में दहाड़ मारकर रोए थे। तब इमरान खान ने कहा था-मुझे समझ में नहीं आता कि कपिल क्यों रोए?सवाल उठता है कि आडवाणी ने देश की सेवा क्या सिर्फ प्रधानमंत्री बनने के लिए की थी? देश में ऐसे कई लौह पुरुष थे जिनकी आंखों में पीएम बनने का सपना नहीं था! चाहे राम मनोहर लोहिया हो या फिर जय प्रकाश नारायण। इसमें श्यामा प्रसाद मुखर्जी भी शामिल हैं जो सिर्फ `नींव का पत्थर# बनकर रह गए। उन्होंने कभी भी किसी राजमहल का कंगूरा बनने की इच्छा नहीं जताई।

वस्तुत: सत्ता वह स्वर्ग की वह रूपसी है जिसे हर कोई पाना चाहता है। सत्ता के लिए युद्ध आदिकाल में भी हुए हैं और आज भी हो रहे हैं। आदिकाल में तो अवतार होते लेकिन आज तो केवल हाड़-मांस के सजीव से लगने वाले निजिoव लोग ही हैं। आडवाणी ने न सिर्फ देश का प्रधानमंत्री बनने का ख्वाब देखा था बल्कि सोमनाथ से अयोध्या तक रथ यात्रा करने वाले इस `रामरथी# को पूरा यकीन था की वे ही देश के प्रधानमंत्री बनेंगे। कट्टर हिंदूवादी नेता की छवि रखने वाले आडवाणी हिंदू धर्म के सबसे बड़े ब्रह्मवाक्य `कर्म किए जा फल की इच्छा मत कर´ को शायद भूल गए। लोकसभा चुनाव को महज औपचारिकता थी लेकिन उनका स्वप्न तो हमेशा के लिए भंग हो गया। आडवाणी की पुत्री प्रतिभा ने एक इंटरव्यू में कहा था कि जब यह कहा जाता है कि उनके पिता कट्टरपंथी हैं तो मुझे दु:ख होता है। वे तो मक्खन की तरह हैं।

देश की राजनीति में अटल, आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी की तिकड़ी ने सालों कमाल किया। अटलजी स्वास्थ्य कारणों से राजनीति से दूर हो गए, तो आडवाणी को लगा जैसे अब वे ही अटलजी के उत्तराधिकारी बनेंगे। लेकिन भाजपा की बुरी गत ने डॉ. जोशी को भी उनके खिलाफ कर दिया।छत्तीसगढ़ के सांसद बलिराम कश्यप ने तो यहां तक कह दिया कि भाजपा की हार के पीछे आडवाणी ही हैं।अटलजी की कमी आज भी भाजपा को अखर रही है। आडवाणी भी यदि संन्यास ले लेंगे तो क्या होगा? आडवाणी और अटल एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। दोनों ने भाजपा को खून-पसीने से सींचा है। आडवाणी को अभी एक और बेहतरीन पारी खेलनी है। सालों पहले एक फिल्म आई थी, जिसमें नायक कहता है `हारी हुई बाजी जीतने वाले को बाजीगर कहते हैं।´ हालांकि रील और रीयल लाइफ में बहुत अंतर है। फिल्म के नायक को आईपीएल में मिली करारी हार से इसका अंदाजा हो गया होगा। लेकिन आडवाणी भाजपा की वह शिख्सयत हैं,जिसे अभी बहुत कुछ करना है।